Thursday, April 8, 2010

"तारे रोज़ निकलते हैं "


इस सूने दिल में आशा के
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं

झुके हुए काँधों पर मेरे
बोझ बहुत है यादों का
चिर अनंत के राही हैं हम
अन्धकार में चलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं

अपने स्वप्नों की अर्थी को
आज अग्नि मै स्वयं देता हूँ
बनकर मेरे अश्रु आज घृत
ह्रदय चिता में जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं

स्वप्नों की यह भस्म दिखाकर
दुनिया को बतलाऊँगा
मिलता है उपहार यही बस
प्रेम यहाँ जो करते हैं/
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं

इस सूने दिल में आशा के
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं./

"राज कान्त"

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