Tuesday, August 10, 2010
तुम ही बोलो क्या क्या लिख दूं ?
दिल कहता है ये भी लिख दूं
दिल कहता है वो भी लिख दूं l
इस कागज़ के इक टुकड़े पर
तुम ही बोलो क्या क्या लिख दूं l
बस तुम पढ़ती या मै पढता
तो पूंछो मत क्या क्या लिखता l
पर पढ़ना है इस दुनिया को
किन हांथों से कितना लिख दूं l
................
ये अश्क स्याह हो जाने दो
ये वादा है हर बात लिखूंगा ,
तुम बोलोगी जब दिन तो दिन
तुम चाहोगी तो रात लिखूंगा l
तुम उतरी हो जब से दिल में
उस हर पल का एहसास लिखूंगा ,
था दूर दूर जीना तो क्या
ये दिल था कितने पास लिखूंगा l
मैं आँखों में अपनी भरकर
वो तेरे सारे ख्वाब लिखूंगा ,
कजरारी प्यारी आँखों में
मोती पाले हैं आप लिखूंगा l
हैं बिखरी शबनम गालों पे
हर तन्हाई की रात लिखूंगा ,
ये होंठ गुलाबी हँस दें तो
मै सावन की बरसात लिखूंगा l
तुम काँधे पर सर रख देना
मैं जुल्फों का एहसास लिखूंगा ,
तुम सिमटी रहना बांहों में
मै धड़कन की आवाज़ लिखूंगा l
चाँद चांदनी का क्या करना
हम तुम और वो रात लिखूंगा ,
लिखना और बहुत कुछ भी है
मै तेरी हर सौगात लिखूंगा l
रातें गुजरेंगी बातों में
मै रोज़ नया इतिहास लिखूंगा ,
ये अश्क स्याह हो जाने दो
ये वादा है हर बात लिखूंगा l
तुम बोलोगी जब दिन तो दिन
तुम चाहोगी तो रात लिखूंगा ll
राज़
मेरा दोष ?
चन्दा मेरा यही दोष क्या
--
मैंने तुझसे प्यार किया ?
जाग जाग कर सारी रैना
बस तेरा दीदार किया ?
नहीं प्रेम के कायल था मै
तो तू मुझसे कह देता ,
अपने निष्ठुर भाग्य चक्र का
यह दुःख भी मै सह लेता I
जब तुम ऐसे मौन रहे
मैंने समझा इकरार किया I
चन्दा मेरा यही दोष क्या मैंने तुझसे प्यार किया ?
तेरा मेरा मिलन असंभव
क्यूं तू मुझसे कहता है ?
माना मै धरती का प्राणी
नील गगन में तू रहता है I
दृढ प्रतिज्ञ जो बढ़ा पंथ पर
लक्ष्य उसी ने प्राप्त किया II
चन्दा मेरा यही दोष क्या
मैंने तुझसे प्यार किया ?
नील गगन तुझको यदि प्यारा
धरती मेरी माता है,
तुझसे कहीं अधिक बढ़कर है
माता से जो नाता है I
गगन सितारे तुम मत त्यागो
मैंने तुमको त्याग दिया II
चन्दा मेरा यही दोष था
मैंने तुझसे प्यार किया I
सच मुच मेरा यही दोष था
मैंने तुमसे प्यार किया II
राज़
--
Monday, June 7, 2010
इन्तिज़ार कब तक हम करेंगे भला................
साथी तुम फिर कब आओगे ?
मेरे सुर में ताल मिला कर
गीत मिलन के कब गाओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
हर आहट तेरी लगती है
तुझ बिन कली शूल लगती है
कब मेरे तपते चेहरे पर
शीतल आँचल लहराओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
तुम ही थे जिससे मै अपना
हर दुःख दर्द बता सकता था
तुम ही थे जिसके पहलू में
मै हर कष्ट भुला सकता था
अपने पहलू में सर रख कर
केश मेरे कब सहलाओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
चले गए तुम किस दुनिया में
सूना करके शहर हमारा
एक बार भी मुड़े नहीं तुम
मैंने तुमको बहुत पुकारा
क्या अपराध ! दंड ये कैसा ?
कब तुम मुझको बतलाओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
कहाँ गई वो शपथ तुम्हारी
मौत तलक ना भूलेंगे
कहाँ गए वो कसमे वादे
साथ कभी बना छोड़ेगे
आकर इस सूने जीवन में
कब मेरे हो जाओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
सुनते हैं दुनिया में साथी
लौट न आये जाने वाला
सच भी हो मै नहीं मानता
है कैसा दस्तूर निराला
वर्षों का ये सत्य शाश्वत
आकर तुम कब झुठलाओगे
साथी तुम फिर कब आओगे ?
मेरे सुर में ताल मिला कर
गीत मिलन के कब गाओगे.......
(Dr.R.Kant)
Sunday, April 25, 2010
"तो घर चलूँ"
यादों का बोझ अपनी उठा लूँ तो घर चलूँ
इस आख़िरी ख़त को भी जला लूँ तो घर चलूँ
पैरों तले कुचल न कहीं जाए जमीं पर
परछाइयां अपनी मै छुपा लूं तो घर चलूँ
हर शख्श इस शहर में मुझे जानता है खूब
पहचान रहगुजर से मिटा लूं तो घर चलूँ
रूस्वा हुए हैं इश्क में ये गम नहीं मुझे
ये दाग़े बेवफाई जो मिटा लूं तो घर चलूँ
खामोश लब हुए भी कई साल हो गए
ये दस्ताने गम मै गुनगुना लूं तो घर चलूँ
कैसे हुआ ये हादसा सब पूंछते हैं लोग
झूंठी कोई भी बात बना लूं तो घर चलूँ
इस आख़िरी ख़त को भी जला लूँ तो घर चलूँ
पैरों तले कुचल न कहीं जाए जमीं पर
परछाइयां अपनी मै छुपा लूं तो घर चलूँ
हर शख्श इस शहर में मुझे जानता है खूब
पहचान रहगुजर से मिटा लूं तो घर चलूँ
रूस्वा हुए हैं इश्क में ये गम नहीं मुझे
ये दाग़े बेवफाई जो मिटा लूं तो घर चलूँ
खामोश लब हुए भी कई साल हो गए
ये दस्ताने गम मै गुनगुना लूं तो घर चलूँ
कैसे हुआ ये हादसा सब पूंछते हैं लोग
झूंठी कोई भी बात बना लूं तो घर चलूँ
Saturday, April 10, 2010
प्रश्न ( ?? )
तुमने हमसे पूँछा है
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
उत्तर देंगे मेरे आंसू
जो तुम्हे नहीं दिख सकते हैं
दिल से प्यारी चीज अगर
खो जाने का भय डसता हो
कौन भला होगा जग में
जो इस डर में भी हंसता हो
दिल में दर्द भरा हो तो
ज्ञानी भी मदिरा पीते हैं
तुमने हमसे पूंछा है
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
दिल डरता है साथी जब तुम
दूर कहीं भी जाते हो
साँसें वापस मिल जातीं हैं
जब तुम वापस आते हो
सोंचो तुम ही बिना तुम्हारे
हम कैसे जी सकते हैं
तुमको उत्तर मिल जाएगा
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
अपने दिल से कभी पूंछना
मिले समय तो कभी सोंचना
राज तेरी कविता के अच्चार
क्यूं दिन रात सिसकते हैं
अब मुझसे मत कभी पूंछना
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
"राज"
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
उत्तर देंगे मेरे आंसू
जो तुम्हे नहीं दिख सकते हैं
दिल से प्यारी चीज अगर
खो जाने का भय डसता हो
कौन भला होगा जग में
जो इस डर में भी हंसता हो
दिल में दर्द भरा हो तो
ज्ञानी भी मदिरा पीते हैं
तुमने हमसे पूंछा है
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
दिल डरता है साथी जब तुम
दूर कहीं भी जाते हो
साँसें वापस मिल जातीं हैं
जब तुम वापस आते हो
सोंचो तुम ही बिना तुम्हारे
हम कैसे जी सकते हैं
तुमको उत्तर मिल जाएगा
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
अपने दिल से कभी पूंछना
मिले समय तो कभी सोंचना
राज तेरी कविता के अच्चार
क्यूं दिन रात सिसकते हैं
अब मुझसे मत कभी पूंछना
हम विरह गीत क्यूं लिखते हैं ?
"राज"
Thursday, April 8, 2010
" रेत सा जीवन मेरा "
मै खडा हूँ ,महल पर
रेत के
टूटता बिखरता
प्रति छन प्रति पल
जैसे कर देगा नष्ट
मेरे समूचे अस्तित्व को!
ठीक ही तो है
कैसा जीवन?
क्या उद्देश्य?
बार बार मरना
मर कर जीना
हजार बार
और फिर मर जाना हर गम के साथ
बस इतना जीवन का सार!
सीमित प्रतिबंधित
पतन के गर्त में
बढ़ता
प्रति छन प्रतिपल
इसी रेत के महल की भांति
टूटता बिखरता गिरता
प्रति छन प्रतिपल
प्रतिपल प्रति छन!
--------------------------
" राज"/
रेत के
टूटता बिखरता
प्रति छन प्रति पल
जैसे कर देगा नष्ट
मेरे समूचे अस्तित्व को!
ठीक ही तो है
कैसा जीवन?
क्या उद्देश्य?
बार बार मरना
मर कर जीना
हजार बार
और फिर मर जाना हर गम के साथ
बस इतना जीवन का सार!
सीमित प्रतिबंधित
पतन के गर्त में
बढ़ता
प्रति छन प्रतिपल
इसी रेत के महल की भांति
टूटता बिखरता गिरता
प्रति छन प्रतिपल
प्रतिपल प्रति छन!
--------------------------
" राज"/
" ये किसे डाल दी वरमाला ??? "
मै भी तेरा हो सकता था ,
तेरे सब दुःख सह सकता था /
पर तूने ये क्या कर डाला ,
ये किसे डाल दी वरमाला ???
जो शीश झुकाए रहता था
जो कभी नहीं कुछ कहता था
वह शीश कलम ही कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
तूफाँ की काली रातों में
जो प्रेम का दीप जलाए था
जो पलक बिछाए राहों में
बस तेरी आस लगाए था
वह जीवन सूना कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
अब शेष नहीं कुछ जीवन में
यह दिल तो एक मरुस्थल है
जब नहीं सीचना था तुमको
ये प्रेम बीज क्यों बो डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
मै जलता हूँ ये फिक्र नहीं
अब भी तेरी ही चिंता है
कहीं तुझको भस्म न कर डाले
मेरी प्रेम विरह की ये ज्वाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
राज /
तेरे सब दुःख सह सकता था /
पर तूने ये क्या कर डाला ,
ये किसे डाल दी वरमाला ???
जो शीश झुकाए रहता था
जो कभी नहीं कुछ कहता था
वह शीश कलम ही कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
तूफाँ की काली रातों में
जो प्रेम का दीप जलाए था
जो पलक बिछाए राहों में
बस तेरी आस लगाए था
वह जीवन सूना कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
अब शेष नहीं कुछ जीवन में
यह दिल तो एक मरुस्थल है
जब नहीं सीचना था तुमको
ये प्रेम बीज क्यों बो डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
मै जलता हूँ ये फिक्र नहीं
अब भी तेरी ही चिंता है
कहीं तुझको भस्म न कर डाले
मेरी प्रेम विरह की ये ज्वाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
राज /
तेरे सब दुःख सह सकता था /
पर तूने ये क्या कर डाला ,
ये किसे डाल दी वरमाला ???
जो शीश झुकाए रहता था
जो कभी नहीं कुछ कहता था
वह शीश कलम ही कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
तूफाँ की काली रातों में
जो प्रेम का दीप जलाए था
जो पलक बिछाए राहों में
बस तेरी आस लगाए था
वह जीवन सूना कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
अब शेष नहीं कुछ जीवन में
यह दिल तो एक मरुस्थल है
जब नहीं सीचना था तुमको
ये प्रेम बीज क्यों बो डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
मै जलता हूँ ये फिक्र नहीं
अब भी तेरी ही चिंता है
कहीं तुझको भस्म न कर डाले
मेरी प्रेम विरह की ये ज्वाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
राज /
पर तूने ये क्या कर डाला ,
ये किसे डाल दी वरमाला ???
जो शीश झुकाए रहता था
जो कभी नहीं कुछ कहता था
वह शीश कलम ही कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
तूफाँ की काली रातों में
जो प्रेम का दीप जलाए था
जो पलक बिछाए राहों में
बस तेरी आस लगाए था
वह जीवन सूना कर डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
अब शेष नहीं कुछ जीवन में
यह दिल तो एक मरुस्थल है
जब नहीं सीचना था तुमको
ये प्रेम बीज क्यों बो डाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
मै जलता हूँ ये फिक्र नहीं
अब भी तेरी ही चिंता है
कहीं तुझको भस्म न कर डाले
मेरी प्रेम विरह की ये ज्वाला
ये किसे डाल दी वरमाला ??
राज /
" फ़कीर...."
मै तो खुद फ़कीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
क्या मिलेगा तुम्हे मुझसे
बादलों से आस जैसे
ना पता है ना ठिकाना
कब कहाँ है किधर जाना
भाप बनकर उड़ गया जो
मै वो सतही नीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
है निराशा का अन्धेरा
जंगलों में वास मेरा
क्यों मेरी पीड़ा सहो तुम
इस जहां से क्यों लड़ो तुम
मझे रहने दो अकेले
हर लहर बस दूर ठेले
आंसुओं से कागजों पर
मै लिखी तकदीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
इस धरा का शाप हूँ मै
राम का वनवास हूँ मै
सिसकती पति की चिता पर
नव वधू की त्रास हूँ मै
आसुओं के संग बहा दो
मै हूँ बीता कल भुला दो
युद्ध से भागा हुआ हूँ
मत समझ मै वीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
मानता मै दोष मेरा
शेष है प्रतिशोध तेरा
दंड ही मेरी नियति है
चीख कर कहती प्रकृति है
ख़ाक में मुझको मिला दो
ठोकरों के संग उड़ा दो
राख की प्राचीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
मै तो खुद फ़कीर हूँ
.......................... ...
"राज "
रेत की लकीर हूँ
क्या मिलेगा तुम्हे मुझसे
बादलों से आस जैसे
ना पता है ना ठिकाना
कब कहाँ है किधर जाना
भाप बनकर उड़ गया जो
मै वो सतही नीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
है निराशा का अन्धेरा
जंगलों में वास मेरा
क्यों मेरी पीड़ा सहो तुम
इस जहां से क्यों लड़ो तुम
मझे रहने दो अकेले
हर लहर बस दूर ठेले
आंसुओं से कागजों पर
मै लिखी तकदीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
इस धरा का शाप हूँ मै
राम का वनवास हूँ मै
सिसकती पति की चिता पर
नव वधू की त्रास हूँ मै
आसुओं के संग बहा दो
मै हूँ बीता कल भुला दो
युद्ध से भागा हुआ हूँ
मत समझ मै वीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
मानता मै दोष मेरा
शेष है प्रतिशोध तेरा
दंड ही मेरी नियति है
चीख कर कहती प्रकृति है
ख़ाक में मुझको मिला दो
ठोकरों के संग उड़ा दो
राख की प्राचीर हूँ
रेत की लकीर हूँ
मै तो खुद फ़कीर हूँ
..........................
"राज "
"नदी तुम सदा पवित्र क्यों रहती हो ? "
मैंने पूंछा
एक पवित्र नदी से
हे माते
जाने कितने
रोज है तुझमे नहाते
धुलते है अपने पाप
सब का क्या करती हो आप ??
नदी हंसी,खिलखिलाई
कुछ सोंचा फिर इठलाई
जाने सच कहा
या की ठिठोली??
मेरे कानो में बोली
मै किसी का पाप
अपने सर नहीं लेती हूँ
पूरे का पूरा सागर को दे देती हूँ
नदी से ज्यादा
उसकी बातों में थी गहराई
कुछ तो समझा
कुछ समझ में नहीं आई
मै गया सागर के पास
लेकर उत्तर की आस
पूंछा भाई सागर
कब तक भरोगे
पापों की गागर
गरजा वह
अर्जुन के गांडीव की तरह
और बोला
क्या बोलते है आप
मै क्यों रखूँगा पाप ??
उड़ा देता हूँ मै
सूरज की पहली किरण के साथ
बनाकर सबको भाप
आकाश में देखो
दिखेंगे तुम्हे पाप
जिन्हें बादल समझते है आप
मैंने घुमड़ते हुए मेघों की और देखा
और चीखा
अरे ओ बादल भाई
क्यों सर पर है पाप की गठरी है उठाई
बादल हंसा
व्यंग के साथ
और गरज कर बोला
रे मूर्ख नादान!
प्रकृति के रहस्यों से अन्जान
मै ले जाता हूँ पाप
लगाता हूँ इनका हिसाब
फिर ब्याज सहित वापस कर देता हूँ
जितना है जिसका
उसके घर पर बरसा देता हूँ
प्रकृति का नियम
कभी गलत नहीं होता है
हंसाने वाला हंसता और
रुलाने वाला रोता है
बादल का ज्ञान समा गया
मेरे कर्ण के कुंडल से अभेद्य
अंतःकरण में
और आया समझ
नदी तुम सदा पवित्र क्यों रहती हो
हमारी गन्दगी कैसे सहती हो ?
तुममे नहा कर भी
पाप कम क्यों नहीं होता
कभी पाप और पापियों का
क्यों अंत नहीं होता ?
एक पवित्र नदी से
हे माते
जाने कितने
रोज है तुझमे नहाते
धुलते है अपने पाप
सब का क्या करती हो आप ??
नदी हंसी,खिलखिलाई
कुछ सोंचा फिर इठलाई
जाने सच कहा
या की ठिठोली??
मेरे कानो में बोली
मै किसी का पाप
अपने सर नहीं लेती हूँ
पूरे का पूरा सागर को दे देती हूँ
नदी से ज्यादा
उसकी बातों में थी गहराई
कुछ तो समझा
कुछ समझ में नहीं आई
मै गया सागर के पास
लेकर उत्तर की आस
पूंछा भाई सागर
कब तक भरोगे
पापों की गागर
गरजा वह
अर्जुन के गांडीव की तरह
और बोला
क्या बोलते है आप
मै क्यों रखूँगा पाप ??
उड़ा देता हूँ मै
सूरज की पहली किरण के साथ
बनाकर सबको भाप
आकाश में देखो
दिखेंगे तुम्हे पाप
जिन्हें बादल समझते है आप
मैंने घुमड़ते हुए मेघों की और देखा
और चीखा
अरे ओ बादल भाई
क्यों सर पर है पाप की गठरी है उठाई
बादल हंसा
व्यंग के साथ
और गरज कर बोला
रे मूर्ख नादान!
प्रकृति के रहस्यों से अन्जान
मै ले जाता हूँ पाप
लगाता हूँ इनका हिसाब
फिर ब्याज सहित वापस कर देता हूँ
जितना है जिसका
उसके घर पर बरसा देता हूँ
प्रकृति का नियम
कभी गलत नहीं होता है
हंसाने वाला हंसता और
रुलाने वाला रोता है
बादल का ज्ञान समा गया
मेरे कर्ण के कुंडल से अभेद्य
अंतःकरण में
और आया समझ
नदी तुम सदा पवित्र क्यों रहती हो
हमारी गन्दगी कैसे सहती हो ?
तुममे नहा कर भी
पाप कम क्यों नहीं होता
कभी पाप और पापियों का
क्यों अंत नहीं होता ?
"गाँव जाना चाहता हूँ"
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
राम बुधिया और छंगा
आज भी हैं हल चलाते
गुनगुनी सी धुप में
पोखर में अबभी हैं नहाते
पत्थरों के इन हम्मामों में
नहा कर थक गया हूँ
फिर उसी फोखर कि माटी
सर लगाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
भोर में भीनी महक
जो बांटती पुरवाइयां हैं
और जहां सोंधी सी माटी
चूमती परछाइयां हैं
बंद कमरों की घुटन से
श्वांस भी रुकने लगी है
उन हरे खेतों से मिलकर
लहलहाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
राम बुधिया और छंगा
आज भी हैं हल चलाते
गुनगुनी सी धुप में
पोखर में अबभी हैं नहाते
पत्थरों के इन हम्मामों में
नहा कर थक गया हूँ
फिर उसी फोखर कि माटी
सर लगाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
भोर में भीनी महक
जो बांटती पुरवाइयां हैं
और जहां सोंधी सी माटी
चूमती परछाइयां हैं
बंद कमरों की घुटन से
श्वांस भी रुकने लगी है
उन हरे खेतों से मिलकर
लहलहाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
"पर नहीं मै चल रहा हूँ! "
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
बर्फ जैसी सर्द साँसें
हैं मेरी तो क्या हुआ
आग जो तुमने लगाईं थी
उसी में जल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
आख़िरी ख़त भी सुपुर्दे
ख़ाक मैंने कर दिया
हाँथ में कुछ लिख बचा था
मै उसे भी मल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ !
.
धूप दरिया और फिज़ाओं
से मुझे क्या वास्ता
एक मुट्ठी धूल दे दो
मै उसी में मिल रहूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
दिल में रख पाने का मुझको
यार मेरे गम न कर
आँख का आंसू समझ
रुसवाइयों में ढल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
जन्नतों की कब रही ख्वाहिश
बता साक़ी मुझे
मैं तो हाले में बरफ के
खंड जैसा गल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
बर्फ जैसी सर्द साँसें
हैं मेरी तो क्या हुआ
आग जो तुमने लगाईं थी
उसी में जल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
आख़िरी ख़त भी सुपुर्दे
ख़ाक मैंने कर दिया
हाँथ में कुछ लिख बचा था
मै उसे भी मल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ !
.
धूप दरिया और फिज़ाओं
से मुझे क्या वास्ता
एक मुट्ठी धूल दे दो
मै उसी में मिल रहूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
दिल में रख पाने का मुझको
यार मेरे गम न कर
आँख का आंसू समझ
रुसवाइयों में ढल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
जन्नतों की कब रही ख्वाहिश
बता साक़ी मुझे
मैं तो हाले में बरफ के
खंड जैसा गल रहा हूँ!
ये मेरा अंतिम सफ़र है
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
पर नहीं मै चल रहा हूँ!
"राज "
"अब अलविदा ! "
कट गयी फांकों में भी आराम से
जब कहा दिल ने चलो कुछ कर दिखाएँ
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
जिन्दगी की जंग थी
लड़ते रहे ,चलते गए
ठोकरें खाईं बहुत
गिरते रहे ,बढ़ते गए
जब कहा दिल ने चलो इन आँधियों को मोड़ दें
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
दर्द जग के आख़िरी इंसान का
देखता सब कुछ रहा चुपचाप बस
सत्य को आदेश था विषपान का
धडकनें अवरुद्ध मैं सहमा विवश
जब कहा दिल ने चलो अब सत्य का उदघोष कर दो
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
सोंचने में उम्र सारी कट गयी
या कभी साहस जुटा पाए नहीं
श्वाश की अनमोल पूंजी लुट गई
स्वप्न भी साकार हो पाए नहीं
जब लगा हमको हकीकत से हुए हैं रूबरू
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
"राज"
जब कहा दिल ने चलो कुछ कर दिखाएँ
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
जिन्दगी की जंग थी
लड़ते रहे ,चलते गए
ठोकरें खाईं बहुत
गिरते रहे ,बढ़ते गए
जब कहा दिल ने चलो इन आँधियों को मोड़ दें
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
दर्द जग के आख़िरी इंसान का
देखता सब कुछ रहा चुपचाप बस
सत्य को आदेश था विषपान का
धडकनें अवरुद्ध मैं सहमा विवश
जब कहा दिल ने चलो अब सत्य का उदघोष कर दो
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
सोंचने में उम्र सारी कट गयी
या कभी साहस जुटा पाए नहीं
श्वाश की अनमोल पूंजी लुट गई
स्वप्न भी साकार हो पाए नहीं
जब लगा हमको हकीकत से हुए हैं रूबरू
हंस के हम से जिन्दगी ने कह दिया
अब अलविदा !
"राज"
"तारे रोज़ निकलते हैं "
इस सूने दिल में आशा के
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
झुके हुए काँधों पर मेरे
बोझ बहुत है यादों का
चिर अनंत के राही हैं हम
अन्धकार में चलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
अपने स्वप्नों की अर्थी को
आज अग्नि मै स्वयं देता हूँ
बनकर मेरे अश्रु आज घृत
ह्रदय चिता में जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
स्वप्नों की यह भस्म दिखाकर
दुनिया को बतलाऊँगा
मिलता है उपहार यही बस
प्रेम यहाँ जो करते हैं/
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
इस सूने दिल में आशा के
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं./
"राज कान्त"
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
झुके हुए काँधों पर मेरे
बोझ बहुत है यादों का
चिर अनंत के राही हैं हम
अन्धकार में चलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
अपने स्वप्नों की अर्थी को
आज अग्नि मै स्वयं देता हूँ
बनकर मेरे अश्रु आज घृत
ह्रदय चिता में जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
स्वप्नों की यह भस्म दिखाकर
दुनिया को बतलाऊँगा
मिलता है उपहार यही बस
प्रेम यहाँ जो करते हैं/
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं
इस सूने दिल में आशा के
दीप नहीं अब जलते हैं
अंधियारा है मन का आँगन
तारे रोज़ निकलते हैं./
"राज कान्त"
"वक्त से पहले बड़ा"
टायरों से पटी झोपडी में
जन्मा वह धरती के बोझ की तरह
फटे आँचल में छिपाकर मुंह
पीता रहा दूध
जैसे बचना चाहता हो
समाज की जिम्मेदारियों से
बढ़ता रहा समय की गलियों में
खाते हुए धक्के
धीरे धीरे पहुँच गया
घर से गलियों तक
सीख गया
खेलना कंचे गिल्ली
दीन दुनिया के जाल से दूर
मस्त अपने खेल में खो गया
पर जल्द ही उसे एहसास हो गया
जब रख दी गई
उसके छोटे काँधों पर कुल्हाड़ी
और बता दिया गया उसे
जंगल का रास्ता************************** **
अल्ल्हड़ धूल भरी राँहों पर
चौड़े बिवाईं भरे पैरों से
थका थका घर लौटा वह
बैठ गया धम्म से
एक ओर पटक कर गट्ठर
देखने लगा गली में
खेलते बच्चों को
उछालते कंचे गिल्ली
और पूंछा अपने आपसे
"कल मै भी तो था इनमे '
"अरे ! कल ही तो मै खेल रहा था इनमें!"
कानों से आवाज टकराई
"कल तू बच्चा था पर
आज हो गया है बड़ा"
"कैसे?"प्रश्न किया उसने
"अरे वही तो हूँ मै!
मुझमें जीवित है
वही बच्चा उछालता कंचे '
आवाज फिर आई
"तो चीर डाल..
अपने अन्दर के बच्चे कको
इस तेज़ कुल्हाड़ी से !
तेरे बाप की बीमारी
और भाइयों की बिलखती भूख
ने बना दिया है तुझे बड़ा
वक्त से पहले बड़ा
वक्त से बहुत पहले !!"
"राज "
जन्मा वह धरती के बोझ की तरह
फटे आँचल में छिपाकर मुंह
पीता रहा दूध
जैसे बचना चाहता हो
समाज की जिम्मेदारियों से
बढ़ता रहा समय की गलियों में
खाते हुए धक्के
धीरे धीरे पहुँच गया
घर से गलियों तक
सीख गया
खेलना कंचे गिल्ली
दीन दुनिया के जाल से दूर
मस्त अपने खेल में खो गया
पर जल्द ही उसे एहसास हो गया
जब रख दी गई
उसके छोटे काँधों पर कुल्हाड़ी
और बता दिया गया उसे
जंगल का रास्ता**************************
अल्ल्हड़ धूल भरी राँहों पर
चौड़े बिवाईं भरे पैरों से
थका थका घर लौटा वह
बैठ गया धम्म से
एक ओर पटक कर गट्ठर
देखने लगा गली में
खेलते बच्चों को
उछालते कंचे गिल्ली
और पूंछा अपने आपसे
"कल मै भी तो था इनमे '
"अरे ! कल ही तो मै खेल रहा था इनमें!"
कानों से आवाज टकराई
"कल तू बच्चा था पर
आज हो गया है बड़ा"
"कैसे?"प्रश्न किया उसने
"अरे वही तो हूँ मै!
मुझमें जीवित है
वही बच्चा उछालता कंचे '
आवाज फिर आई
"तो चीर डाल..
अपने अन्दर के बच्चे कको
इस तेज़ कुल्हाड़ी से !
तेरे बाप की बीमारी
और भाइयों की बिलखती भूख
ने बना दिया है तुझे बड़ा
वक्त से पहले बड़ा
वक्त से बहुत पहले !!"
"राज "
"जब से वो चेहरा देखा है.......... "
पूरब देखा,पश्चिम देखा
उत्तर देखा,दक्षिण देखा
ये दुनिया फीकी लगती है l
जब से वो चेहरा देखा है..........
कुछ खुशियाँ हैं, कुछ गम भी हैं
कुछ बिछड़ गए, कुछ संग भी हैं
जाने किसने खींची
इन राहों में लक्ष्मण रेखा है l
जब से वो चेहरा देखा है............
एक बार पिया ,दो बार पिया
एक दौर चला ,फिर और चला
पैमाने से वो क्या बहके
जिसने मयखाना देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है...........
कुछ दूर हटे, फिर पलट गए
वो रुके नहीं, फिर चले गए
वो एक नहीं हैं कितनो को
यूं मुड़कर जाते देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है.......
कुछ धुंआ उठा, फिर शोर उठा
कुछ जोर उठा, हर ओर उठा
चिंगारी से वो क्या भड़के
जिसने घर जलते देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है........
जब अलग हुए, वो तड़प उठे
एक दर्द उठा, वो सिसक उठे
उस रस्ते की पीड़ा पूंछो
जो हर दो पग पर बंटता है l
जब से वो चेहरा देखा है.......
राज कान्त "राज"
.
उत्तर देखा,दक्षिण देखा
ये दुनिया फीकी लगती है l
जब से वो चेहरा देखा है..........
कुछ खुशियाँ हैं, कुछ गम भी हैं
कुछ बिछड़ गए, कुछ संग भी हैं
जाने किसने खींची
इन राहों में लक्ष्मण रेखा है l
जब से वो चेहरा देखा है............
एक बार पिया ,दो बार पिया
एक दौर चला ,फिर और चला
पैमाने से वो क्या बहके
जिसने मयखाना देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है...........
कुछ दूर हटे, फिर पलट गए
वो रुके नहीं, फिर चले गए
वो एक नहीं हैं कितनो को
यूं मुड़कर जाते देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है.......
कुछ धुंआ उठा, फिर शोर उठा
कुछ जोर उठा, हर ओर उठा
चिंगारी से वो क्या भड़के
जिसने घर जलते देखा है l
जब से वो चेहरा देखा है........
जब अलग हुए, वो तड़प उठे
एक दर्द उठा, वो सिसक उठे
उस रस्ते की पीड़ा पूंछो
जो हर दो पग पर बंटता है l
जब से वो चेहरा देखा है.......
राज कान्त "राज"
.
"गम से अपनी यारी है"
तन्हाई से अपना रिश्ता
गम से अपनी यारी है
बनती मिटती बूंदों जैसी
ये तकदीर हमारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता.................. ...
मै तो वो सपना ठहरा
जो आँख खुली तो टूट गया
लुट ते रहे जहाँ में अब तक
जो आया वो लूट गया
मुरझाने वाले फूलों में
अब तो अपनी बारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता.................. ...
उनसे थी उम्मीद बहुत
पर उनका रुख कुछ ऐसा है
पल में अपने पल बेगाने
पैमाने के जैसा है
वही दर्द पर दवा वही हैं
ये कैसी बीमारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता.................. ...
लफ़्ज़ों में हैं सिमटे आंसू
कागज़ पर रो लेते हैं
आँखों में है दर्द सजा
पर होंठो से हँस देते हैं
याद रहेंगे वो लम्हे
जब तन्हा उम्र गुज़री हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता.................. ...
बनती मिटती बूंदों जैसी
ये तकदीर हमारी है
"राज"
गम से अपनी यारी है
बनती मिटती बूंदों जैसी
ये तकदीर हमारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता..................
मै तो वो सपना ठहरा
जो आँख खुली तो टूट गया
लुट ते रहे जहाँ में अब तक
जो आया वो लूट गया
मुरझाने वाले फूलों में
अब तो अपनी बारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता..................
उनसे थी उम्मीद बहुत
पर उनका रुख कुछ ऐसा है
पल में अपने पल बेगाने
पैमाने के जैसा है
वही दर्द पर दवा वही हैं
ये कैसी बीमारी हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता..................
लफ़्ज़ों में हैं सिमटे आंसू
कागज़ पर रो लेते हैं
आँखों में है दर्द सजा
पर होंठो से हँस देते हैं
याद रहेंगे वो लम्हे
जब तन्हा उम्र गुज़री हैतन्हाई से अपना रिश्र्ता..................
बनती मिटती बूंदों जैसी
ये तकदीर हमारी है
"राज"
तुम प्रिया हो ?
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
प्रियतमा हो क्या किसी की
राज अब ये खोल जाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
हर कवी की कल्पना में
रूप बसता है तुम्हारा
हर वियोगी प्रेम का
बस ढूंढता तेरा सहारा
प्रेरणा हो प्रेम की तुम
कुछ मुझे भी तो सिखाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
छा गई नभ में घटाएं
केश जब तुमने संवारा
होंठ जब तुमने हिलाए
बन गया संगीत सारा
शस्त्र सब जग के नयन में
तीर कुछ मुझपर चलाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
चाल तुम ऐसी चलो
ना मोरनी को हो गंवारा
पाँव पर तेरे झुका
इस विश्व का सौन्दर्य सारा
मोहिनी का रूप हो तुम
कुछ मुझे भी तो रिझाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
हो लता की भांति कोमल
अंग कंचन सा तुम्हारा
और इस मासूमियत ने
है बहुत तुमको निखारा
राज को खुद में छिपाकर
और मत मुझको सताओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
गीत मै तुम पर बनाऊँ
मन यही तो था तुम्हारा
तुच्छ सी कोशिश हमारी
काश तुम कह दो है प्यारा
अर्थ शब्दों को मिलेंगे
तुम इसे जो गुनगुनाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
प्रियतमा हो क्या किसी की
राज अब ये खोल जाओ ll
"Raj Kant"
राज
ये ज़रा मुझको बताओ ?
प्रियतमा हो क्या किसी की
राज अब ये खोल जाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
हर कवी की कल्पना में
रूप बसता है तुम्हारा
हर वियोगी प्रेम का
बस ढूंढता तेरा सहारा
प्रेरणा हो प्रेम की तुम
कुछ मुझे भी तो सिखाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
छा गई नभ में घटाएं
केश जब तुमने संवारा
होंठ जब तुमने हिलाए
बन गया संगीत सारा
शस्त्र सब जग के नयन में
तीर कुछ मुझपर चलाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
चाल तुम ऐसी चलो
ना मोरनी को हो गंवारा
पाँव पर तेरे झुका
इस विश्व का सौन्दर्य सारा
मोहिनी का रूप हो तुम
कुछ मुझे भी तो रिझाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
हो लता की भांति कोमल
अंग कंचन सा तुम्हारा
और इस मासूमियत ने
है बहुत तुमको निखारा
राज को खुद में छिपाकर
और मत मुझको सताओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
गीत मै तुम पर बनाऊँ
मन यही तो था तुम्हारा
तुच्छ सी कोशिश हमारी
काश तुम कह दो है प्यारा
अर्थ शब्दों को मिलेंगे
तुम इसे जो गुनगुनाओ l
तुम प्रिया हो या प्रिये हो
ये ज़रा मुझको बताओ ?
प्रियतमा हो क्या किसी की
राज अब ये खोल जाओ ll
"Raj Kant"
राज
"!!प्रेम की विवशता!! "
प्रेम मुझे करते हो लेकिन
प्रेम मुझे तुम कर न सकोगे l
प्रेम राह में कांटे लाखों
चाहोगे पर चल न सकोगे ll
प्रेम मुझे करते हो लेकिन
प्रेम मुझे तुम कर न सकोगे l
मै चाहूंगा प्रेम हृदय का
आयेगा जो रास नहीं l
तुम चाहोगी प्रेम देह का
जिसकी मुझको प्यास नहीं l
तुम धरती मै नील गगन हूँ
चाहोगे पर मिल न सकोगे ll
प्रेम मुझे करते हो लेकिन
प्रेम मुझे तुम कर न सकोगे l
मै मानूंगा देवी तुमको
मंदिर रास न आयेगा l
तुम स्वच्छंद हवा का झोंका
दिल में ठहर न पायेगा l
तूफाँ के संग बहने वाले
मेरी खातिर रुक न सकोगे ll
प्रेम मुझे करते हो लेकिन
प्रेम मुझे तुम कर न सकोगे l
कर्म पूर्ण है मेरा जीवन
दूर मुझे जाना होगा l
तुम चाहोगी रोज़ मिलन हो
मगर न मिल पाना होगा l
ये वियोग होगा दुखदायी
विरह दर्द तुम सह न सकोगे ll
प्रेम मुझे करते हो लेकिन
प्रेम मुझे तुम कर न सकोगे l
"राज"
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