मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
राम बुधिया और छंगा
आज भी हैं हल चलाते
गुनगुनी सी धुप में
पोखर में अबभी हैं नहाते
पत्थरों के इन हम्मामों में
नहा कर थक गया हूँ
फिर उसी फोखर कि माटी
सर लगाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
भोर में भीनी महक
जो बांटती पुरवाइयां हैं
और जहां सोंधी सी माटी
चूमती परछाइयां हैं
बंद कमरों की घुटन से
श्वांस भी रुकने लगी है
उन हरे खेतों से मिलकर
लहलहाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
राम बुधिया और छंगा
आज भी हैं हल चलाते
गुनगुनी सी धुप में
पोखर में अबभी हैं नहाते
पत्थरों के इन हम्मामों में
नहा कर थक गया हूँ
फिर उसी फोखर कि माटी
सर लगाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
भोर में भीनी महक
जो बांटती पुरवाइयां हैं
और जहां सोंधी सी माटी
चूमती परछाइयां हैं
बंद कमरों की घुटन से
श्वांस भी रुकने लगी है
उन हरे खेतों से मिलकर
लहलहाना चाहता हूँ
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
कंकरीटों के घने जंगल
बुरे लगने लगे है
फिर उसी पीपल कि
ठंढी छाँव पाना चाहता हूँ!
मन दुखी है
कह रहा है
गाँव जाना चाहता हूँ!
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