Thursday, April 8, 2010

"नदी तुम सदा पवित्र क्यों रहती हो ? "


मैंने पूंछा
एक पवित्र नदी से
हे माते
जाने कितने
रोज है तुझमे नहाते
धुलते है अपने पाप
सब का क्या करती हो आप ??

नदी हंसी,खिलखिलाई
कुछ सोंचा फिर इठलाई
जाने सच कहा
या की ठिठोली??
मेरे कानो में बोली
मै किसी का पाप
अपने सर नहीं लेती हूँ
पूरे का पूरा सागर को दे देती हूँ

नदी से ज्यादा
उसकी बातों में थी गहराई
कुछ तो समझा
कुछ समझ में नहीं आई
मै गया सागर के पास
लेकर उत्तर की आस

पूंछा भाई सागर
कब तक भरोगे
पापों की गागर
गरजा वह
अर्जुन के गांडीव की तरह
और बोला

क्या बोलते है आप
मै क्यों रखूँगा पाप ??
उड़ा देता हूँ मै
सूरज की पहली किरण के साथ
बनाकर सबको भाप
आकाश में देखो
दिखेंगे तुम्हे पाप
जिन्हें बादल समझते है आप

मैंने घुमड़ते हुए मेघों की और देखा
और चीखा
अरे ओ बादल भाई
क्यों सर पर है पाप की गठरी है उठाई

बादल हंसा
व्यंग के साथ
और गरज कर बोला
रे मूर्ख नादान!
प्रकृति के रहस्यों से अन्जान
मै ले जाता हूँ पाप
लगाता हूँ इनका हिसाब
फिर ब्याज सहित वापस कर देता हूँ
जितना है जिसका
उसके घर पर बरसा देता हूँ

प्रकृति का नियम
कभी गलत नहीं होता है
हंसाने वाला हंसता और
रुलाने वाला रोता है
बादल का ज्ञान समा गया
मेरे कर्ण के कुंडल से अभेद्य
अंतःकरण में
और आया समझ

नदी तुम सदा पवित्र क्यों रहती हो
हमारी गन्दगी कैसे सहती हो ?
तुममे नहा कर भी
पाप कम क्यों नहीं होता
कभी पाप और पापियों का
क्यों अंत नहीं होता ?

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